“देखिए जी, हमे कोई दहेज का लोभ ना है । हमें तो बस लाग्गी-लुग्गी बहु चाहिए” ।
ये जुमला पहले ना था, मगर आज आम है । लड़की के पिता पर इस जुमले का जबरदस्त दबाव रहता है । ये योग्यता कैसे पूरी हो, इस चिन्ता में घुलता – घूमता पिता घटने लगता है रोज ।
दूसरी तरफ बेटा सरकारी नौकर होते ही उसका उचित मूल्यांकन शुरू हो जाता है । लड़के के बुआ-मामे “मोटी पार्टी” लेकर आने की जुगत में सक्रिय हो जातें । लड़के की माँ नौकर बेटे को देख दुगने लाड लडाती है तो बाप तिरछी नजर से देख खुश होता कि ये निवेश तो सही गया है । बड़ी कीमत लगी इस पर अब तो रिटर्न का वक़्त है । मौज ही मौज है अब तो ।
जहाँ साहेबजादे यारी रिश्तेरदारी से मिलने वाले सम्मान से आसमान में हैं, उन्हें अब अदब और लिहाज का और सलीका होने लगता है । गाड़ी ना मिले तो अपमान सा मालूम पड़ता है, कि क्या इसके लिए ही आँखें फोड़ी हैं, जी जलाया है । कुछ तो स्टेटस होना ही चाहिए ।
अब समस्या ये की इस “अनमोल रत्न” को दें तो दें किसको, बेचना तो पड़ेगा । कोई कहता है दस लाख की गाड़ी दिलवा देंगे, इतने तोला सोना बाकी जो आम देते हैं वो तो है ही । एक दम हिसाब-किताब शुरू हो जाता है, दस की गाड़ी आठ के जेवर; अठारह लाख ! बस ! बीस लाख तो कोर्स खर्च ही था । कोई मज़ाक़ थोड़ी है । उपर से लोभी कहे दुनिया,सो अलग । गुनाह भी है और बेलज्जत ।
ऐसे में एक फरिश्ता नुमाया होता है जो कान में धीरे से कहता है, बल्कि फुसफुसाता है “लाग्गी लुग्गी” । बस अचानक ही मुखिया जी को दहेज से नफरत सी हो जाती, खून खौलता है इस सामाजिक बीमारी को देख । अपने यार दोस्तों में जिक्र करते हैं अपने विचारों का, महफ़िल लूटते हैं । छाती ठोक कर कहते हैं, बेटा ब्याहूँगा और बिना गाड़ी । कोई मर्ज़ी से जो दे वो रीति है, अन्यथा मैं ना लूँ एक पैसा भी ।
नवाबजादे साहब जहाँ रोज शोरूम का चक्कर लगा आया करते वो भी अभी पिता के महान विचारों से बड़े प्रभावित हैं । खबर मशहूर की जाती है । खानदानी परिवार है, कोई मांग नहीं, दहेज के कट्टर विरोधी । बस लड़की भी सरकारी नौकरी में हो, विचार मिल जाएंगे । और आज कितनी महंगाई है, बच्चे पालना खेल थोड़ी ना है, दोनों कमायेंगे तभी घर चलेगा । बस बच्चों की खुशी है । हमे कुछ ना चाहिए ।
इंसान बड़ा शातिर है । पता है दस-बीस लाख की क्या हैसियत जब करोड़ों आ सकते हों । अंडा क्यों लें जब मुर्गी आ सकती है । तीस चालीस साल कमाएगी, घर भर देगी । सरकारें खुश हैं, कानून बना । कोई दहेज ले तो सही, सीधे अंदर । मूर्ख लोभी गाड़ी मांगता है, ना मिले तो ताने देगा, मरेगा कुटेगा, जलाएगा । न्याय की आँख “अगर खुली” तो भीतर होगा । शातिर लोभी ये सब गणनाएँ किये बैठा है, रिश्ता जुड़ने स पहले ही जुगाड़ करने की धुन में है । उसके मन के भीतर बैठा खजांची सारी न्यायव्यवस्था को बाईपास करने की युक्ति ढूंढ चुका है ।
बेटी के बाप को पहले जहाँ खेती-फसल बेच सुनार, शोरूम पर ही खड़ा रहना पड़ता था; अब नेताओं के पैर भी पकड़ने पड़ते हैं । आज MLA साहेब कल MP साहेब के ऑफिस ।
नेता जी के सामने सामने बैठा है, आलीशान ऑफिस में । मुट्ठी में दबी बिटिया के रोल नम्बर की पर्ची पसीने से गीली हो रही है । दिल धाड़ धाड़ बज रहा है, मानो फट पड़ेगा ।
~ मंदीप दलाल